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आत्मचिंतन के क्षण
कोई व्यक्ति विद्वानों के साथ रहे पर उसके मन में वेश्याओं की छवि भाव भंगी, कुचेष्टाएँ नाचती रहें, और विकार पूर्ण अंगों तथा चेष्टाओं का चिंतन करता रहे तो निश्चय ही विद्वानों की संगति का उतना प्रभाव न होगा जितना उन मानसिक काम विकारों का होगा।
स्वाद को जीतने के लिए एक नियम तो यह है कि मसालों को सर्वथा अथवा जितना हो सके त्याग देना चाहिए, और दूसरा अधिक जोरदार उपाय यह है कि इस भावना की वृद्धि हमेशा की जाय कि हम स्वाद के लिए नहीं, केवल शरीर रक्षा के लिए ही भोजन करते हैं।
जीवन एक झूले है जिस में आगे भी और पीछे भी झोटे आती है। झूलने वाला पीछे जाते हुए भी प्रसन्न होता है। और आगे आते हुए भी, यह अज्ञानग्रस्त, माया मोहित, जीवन विद्या से अपरिचित लोग बात बात में अपना मानसिक संतु...
आत्मचिंतन के क्षण
कुशलता पूर्वक कार्य करने का नाम ही योग है, कुशल व्यक्ति संसार में सच्ची प्रगति कर सकता है जीवन का सर्वाेच्च लक्ष्य यही है कि मनुष्य प्रत्येक कार्य को विवेक पूर्वक करे। इससे मन निर्मल रहता है, आत्मा सजग हो जाता है और मस्तिष्क परिष्कृत रहता है। ऐसे विचारशील व्यक्ति को संशय और मोहग्रस्त होकर भटकना नही पड़ता।
अनासक्ति कर्मयोग का यह अर्थ कदापि नहीं है कि व्यस्थ रहकर कुछ भी अच्छा -बुरा किये जाओ ,कोई भी गुण दोष हमारे लिये नहीं आयेगा। अनासक्ति कर्मयोग का केवल यह अर्थ है कि अपने कर्मों के कर्मफल से प्रभावित होकर कर्म गति में व्यवधान अथवा विराम न आने दें जिससे दिन प्रति दिन अपने कर्मों में सुधार करते हुए परमपद की ओर बढ़ते जायें।
गृहस्थाश्रम समाज के संगठन मानवीय मूल्यों...
आत्मचिंतन के क्षण
स्वस्थ जीवन का आधार है- अध्यात्म सिद्धान्तों का जीवन के हर क्षण, हर गतिविधि में व्यापक समावेश। दवाओं से स्वास्थ्य नहीं खरीदा जा सकता। मनो,विकार व्यक्तिगत व समष्टिगत रोगों का मूल कारण है। राष्ट्र के समग्र स्वास्थ्य हेतु, इसके निवारण के लिए अध्यात्म सिद्धान्तों को उत्कृष्ठता की पक्षधर मान्यताओं का जन- स्तरीय व्यापक प्रचार- प्रसार अति आवश्यक है।
जिस तरह अग्नि, यज्ञ कुण्ड में प्रज्वलित होती है, वैसे ही ज्ञानाग्नि अन्तःकरण में, तपाग्नि इन्द्रियों में तथा कर्माग्नि देह में प्रज्वलित रहनी चाहिए। यही यज्ञ की। आध्यात्मि स्वरूप है। अपनी संकीर्णता, अहंता, स्वार्थपरता को जो इस दिव्य अग्नि में होम देता है, वह बदले में इतना प्राप्त करता है, जिससे नर को नारायण की पदवी मिल सके। &n...
आत्मचिंतन के क्षण
सच्चा साथी प्यार करता है, सलाह देता है तथा सुख- दुःख में सहयोग भी देता है। इसके अलावा वह शक्ति और सुरक्षा भी दे और प्रत्युपकार की जरा भी अपेक्षा न रखे, तो वह सोने में सुहागा हो जायेगा- ईश्वर ऐसा ही साथी है।
मनुष्य इसीलिए श्रेष्ठ है कि वह धर्म, सदाचार, नीति विशेष और परमार्थ को प्रधानता देता है। यदि वह इन पाँचों को छोड़ दे, तब तो उसे सबसे निकृष्ट कहा जाएगा, क्योंकि बुद्धि का उपयोग करके वह संसार में दुःख और क्लेशों को ही बढाता है।
आरोग्य रक्षा एवं स्वस्थ जीवन का महत्त्व पूर्ण सूत्र-
मित भुक् -- अर्थात भूख से कम खाना।
हित भुक् -- अर्थात्- सात्विक खाना।
ऋत भुक्- अर्थात् न्यायोपार्जित खाना।
महत्त्व की बात यह नहीं है कि हमने कितने लो...
आत्मचिंतन के क्षण
दम के समान कोई धर्म नहीं सुना गया है। दम क्या है? क्षमा, संयम, कर्म करने में उद्यत रहना, कोमल स्वभाव, लज्जा, बलवान, चरित्र, प्रसन्न चित्त रहना, सन्तोष, मीठे वचन बोलना, किसी को दुख न देना, ईर्ष्या न करना, यह सब दम में सम्मिलित है।
त्याग के बिना कुछ प्राप्त नहीं होता। त्याग के बिना परम आदर्श की सिद्धि नहीं होती। त्याग के बिना मनुष्य भय से मुक्त नहीं हो सकता। त्याग की सहायता से मनुष्य को हर प्रकार का सुख प्राप्त हो जाता है।
लोग अनेक प्रकार के मोह में जकडे़ हुए हैं। उनकी दशा ऐसी है, जैसी रेत के पुल की जो नदी के वेग के साथ नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार तिल कोल्हू में पेरे जाते हैं, उसी प्रकार वे मनुष्य पेरे जाते हैं जो संसार के मोह में फँस जाता है और निकल नहीं सकत...
आत्मचिंतन के क्षण
सुख- दुःख हर तरह की परिस्थिति में सन्तुष्ट रहने को सन्तोष कहते हैं। कुसंस्कारों के परिशोधन एवं सुसंस्कारों के अभिवर्द्धन के लिए स्वेच्छापूर्वक जो कष्ट उठाया जाता है- वह तप कहलाता है। स्वयं के अध्ययन- विश्लेषण के लिए किया जाने वाला अध्यवसाय स्वाध्याय है। अपने चित्त को श्रद्धापूर्वक परमात्मा के दिव्य स्वरूप में नियोजित करना ईश्वर प्राविधान कहलाता है।
संकीर्ण स्वार्थपरता एवं आसुरी जीवन दर्शन को निरस्त करने के लिए आवश्यक है कि चिन्तन की उत्कृष्टता ,स्वभावगत शालीनता और व्यवहार की आदर्शवादिता के दूरगामी सत्परिणामों को तर्क, प्रमाण और उदाहरणों सहित समझाया जाय।
भगवान् पत्र, पुष्पों के बदले नही, भावनाओं के बदले प्राप्त किये जाते हैं और वे भावनाएँ आवेश, उ...
आत्मचिंतन के क्षण
दु:ख और क्लेशों की आग में जलने से बचने की जिन्हें इच्छा है उन्हें पहला काम यह करना चाहिए कि अपनी आकांक्षाओं को सीमित रखें। अपनी वर्तमान परिस्थिति में प्रसन्न और सन्तुष्ट रहने की आदत डालें। गीता के अनासक्त कर्मयोग का तात्पर्य यही है कि महत्वकांक्षायें वस्तुओं की न करके केवल कर्त्तव्य पालन की करें।
देवत्व वह आलोक है, जिसके हटते ही तमिस्ना और निस्तब्धता छाने लगती है। नरक क्या है ? देवत्व के आभाव में फैली हुई अव्यवस्था और उसकी सड़न-दुर्गंध। दैत्य क्या है? देवत्व के दुर्बल बनने पर परिपुष्ट हुआ औद्धत्य-अनौचित्य। देवमाता ही इस संसार में सत्यम् शिवम् सुन्दरम की अनुभूति एवं आभा बनकर प्रकट होती है। उसकी अवहेलना से ही पतन और पराभव का वातावरण बनता और विनाश का सरंजाम खडा होता है।
आत्मचिंतन के क्षण
किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।
हे सखे, तुम क्यों रो रहे हो? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन्, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। हे विद्वन! डरो मत्; तुम्हारा नाश नहीं हैं, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय हैं। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मै तुम्हे दिखाता हूँ!
लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, ...
आत्मचिंतन के क्षण
तुम्हीं हमारे इहकाल हो और तुम्हीं परकाल हो, तुम्हीं परित्राण हो और तुम्हीं स्वर्गधाम हो, शास्त्रविधि और कल्पतरू गुरु भी तुम्हीं हो; तुम्हीं हमारे अनन्त सुख के आधार हो। हमारे उपाय, हमारे उद्देश्य तुम्ही हो, तुम्हीं स्त्राष्टा, पालनकर्ता और उपास्य हो, दण्डदाता पिता, स्नेहमयी माता और भवार्णव के कर्णधार भी तुम्हीं हो।"
जो यथार्थ त्यागी हैं वे सर्वदा ईश्वर पर मन रख सकते हैं; वे मधुमक्खी की तरह केवल फूल पर बैठते है; मधु ही पीते हैं। जो लोग संसार में कामिनी-कांचन के भीतर है उनका मन ईश्वर में लगता तो है, पर कभी कभी कामिनी-कांचन पर भी चला जाता है; जैसे साधारण मक्खियाँ बर्फि पर भी बैठती हैं और सडे़ घाव पर भी बैठती हैं, विष्ठा पर भी बैठती हैं।
ईश्वर की बात कोई कहता है,...
आत्मचिंतन के क्षण
सेवक कभी अपने मन में ऐसा भाव नहीं लाता कि वह सेवक है। वह अपने स्वामी अथवा सेव्य का आभार मानता है कि उन्होंने अपार कृपा करके उसे सेवा का अवसर प्रदान कि या अर्थात् वह सेवा नहीं कर रहा, अपितु उसके स्वमी उससे सेवा ग्रहण कर रहे हैं। वह उसे जब जिस सेवा के योग्य समझते हैं अथवा जब जैसी इच्छा होती है, वह सेवा ग्रहण करते हैं।
पाठको! जिस प्रकार आपको प्रशंसा प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी। आप दूसरों से सहयोग और सहानुभूति चाहते हैं, वैसे ही आपके मित्र- बन्धु पड़ौसी भी आपसे ऐसी ही अपेक्षा रखते हैं। दूसरों की इच्छा के लिए यदि अपनी अभिरुचि का दमन कर देते हैं ,तो प्रत्याशी पर आपकी इस सद्भावना का असर जरूर पड़ेगा। आत्मीयता, उदारता, साहस् नैतिकता, श्रमशीलता जैसे सदाचारों में से कोई न कोई सम्पत्ति ...